इन बेजुबानों का दर्द भी तो समझो (अजय तिवाड़ी):
गढ़वाल आर्थात देवताओं की भूमि और इस देवभूमि का द्वार कोटद्वार , पहले कोटद्वार नगर और कोटद्वार भाबर के रूप में इस क्षेत्र की पहचान होती थी भाबर क्षेत्र में मूलतः पर्वतीय क्षेत्रों के लोग जो कि खेती किसानी वाले थे रहते थे जबकि नगर क्षेत्र में भारत विभाजन के पश्चात आये पंजाबी समुदाय और राजस्थान से आये बनिया समाज के लोग और मुसलमान समुदाय के लोग अधिक थे जबकि अब पर्वतीय क्षेत्र से पलायन कर आने वाले लोगों की जिस संख्या में बसावट बढ़ी है उसी तर्ज पर भवन निर्माण और फल शब्जी बेचने वाले बिहार प्रान्त और जिला बिजनौर के नजीबाबाद से आकर यहां बसने वालों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है,
एक अनुमान के मुताबिक कोटद्वार की आबादी डेढ़ लाख से अधिक हो चुकी है , यहां यह सब लिखने का उद्देश्य मेरा सामाजिक समीकरणों के बदलाव का प्रभाव जनमानस के व्यवहार को किस तरह प्रभावित करता है को लेकर है, यद्यपि मेरे लेख का आशय उन बेजुबान पशुओं के साथ हमारे व्यवहार में आये बदलाव के कारणों को तलाशना है , मेरा बाल्यकाल से लेकर किशोरावस्था का जीवन गढ़वाल के पर्वतीय क्षेत्र में बीता है तथा पहाड़ की सभ्यता और संस्कृति , परम्पराओं और रीति रिवाजों को मैने ना केवल देखा है बल्कि उस परिवेश को आत्मसात किया, जहाॅ भोजन के पहले कौर पर गौ- वंश का अधिकार था गाय के दूध पर उसके बछड़े का पहला अधिकार था गाय माॅ स्वरूप थी बग्वाल के दिन तो गौ पूजन होता था लेकिन वर्ष भर गाय की सेवा होती थी क्योंकि गाय हमारे घरों में दूध देकर हमारे पाल्यों ,बुजुर्गो के लिए अमृत स्वरूप दूध देती थी लेकिन गाय और मानव का रिश्ता पूजनीय था।

लेकिन अगर आज आप भगवान सिद्धबली की नगरी कहलाने वाली कोटद्वार नगरी में गौ- माता की हालत देखेंगे और आप एक संवेदनशील मानव हिर्दय रखते हैं तो निश्चित रूप से आप विचार करेंगे कि आज इस देवभूमि के द्वार कोटद्वार मे गौ माता किस हालत में है कुछ लोग गाय पालते हैं और जब तक गाय दूध देती है तब तक घर पर रखी जाती है और दूध देना बंद किया तो उस बेजुबान को घर से बाहर सड़कों पर लावारिश छोड़ देते हैं और उसकी ढूंढ साल भर बाद शुरु होती है जब वह पुनः दूध देने को तैयार हो वहीं गाय के बछड़ों के साथ भी यही सलूक होता है।
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यह एक बड़ी समस्या भी बन रहा है कोटद्वार में ये बेजुबान सड़कों पर पड़े ट्रक आदि वाहनों के नीचे लेट जाते हैं और वाहनों से गम्भीर रूप से घायल हो जाते हैं। नगर निगम द्वारा जहां तहां रखे गये कूड़े दानों में सड़ा गला भोजन कूड़ा करकट खाते ये बेजुबान वहां नजर आते हैं , मैने अपने लेख की शुरुआत कोटद्वार नगर के सामाजिक परिवेश में बदलाव को लेकर किया था आज से तीस चालीस साल पहले यह हालात नही थे आज इन बेजुबानों की यह दशा हर एक मानव कहलाने वाले व्यक्ति को एक संवेदनशील मनुष्य को जरूर झकजोर देगी कि आज का मानव इतना स्वार्थी क्यों हो गया पलायन का असर क्या हमारे संस्कारों पर भी पड़ गया है जहां गाय आज केवल एक उपयोग की वस्तु बनकर रह गई है आखिर कहां जा रहा है आज का मानव यद्यपि समाज में आज भी कुछ लोग हैं जो इन निराश्रित बेजुबानों के लिए गौधाम बना रहे हैं उनके हित के लिए काम कर रहे हैं लेकिन हिंदू धर्म जो जो जीवन के पग पग पर और जीवन के समाप्त होने पर भी गाय को ही मुक्ति का आधार मानता है आज गौवंश को लेकर कितना संवेदनहीन हो गया है एक बार कोटद्वार की सड़कों पर इन बेजुबानों की पीड़ा को देखो आखिर इगाश बग्वाल मनाने वालों को क्या हो गया है विचार करने की आवश्यक्ता है क्या हमें इस तरह मिलेगी मुक्ति - अजय तिवाड़ी।।।


